जन्म से लेकर मृत्यु तक हर व्यक्ति की कुछ जरूरतें होती हैं, जिसकी पूर्ति के लिए वह आजीवन परिश्रम करता है। इनमें से कुछ जरूरतें ऐसी भी होती हैं, जिनकी पूर्ति के बिना जीवन संभव नहीं होता। मानव की इन्हीं आवश्यकताओं को अर्थशास्त्र में आवश्यक आवश्यकता कहा गया है, जिन्हें किसी भी सूरत में पूरा करना होता है।
जन्म से लेकर मृत्यु तक हर व्यक्ति की कुछ जरूरतें होती हैं, जिसकी पूर्ति के लिए वह आजीवन परिश्रम करता है। इनमें से कुछ जरूरतें ऐसी भी होती हैं, जिनकी पूर्ति के बिना जीवन संभव नहीं होता। मानव की इन्हीं आवश्यकताओं को अर्थशास्त्र में आवश्यक आवश्यकता कहा गया है, जिन्हें किसी भी सूरत में पूरा करना होता है।
इनमें सबसे पहला स्थान भोजन का और दूसरा वस्त्र का है। मकान तो तीसरे स्थान पर आता है। इन तीनों की पूर्ति हो जाने के बाद ही व्यक्ति अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की सोचता है, जिसे पूरा करने में जीवन खप जाता है।
वैसे व्यक्ति की जरूरतें अनंत होती हैं। इसकी पूर्ति आय के स्तर पर निर्भर करती है, लेकिन आवश्यक आवश्यकताएं जीवन का आधार हैं। जिन पर दिनों-दिन हावी होती जा रही महंगाई डायन ने आम आदमी की हालत पतली कर दी है। परिणाम यह है कि आवश्यक आवश्यकता की पूर्ति करने में टूटते जा रहे आम आदमी की थाल से अरहर की दाल गायब हो गई और लहसुन प्याज के अभाव में सब्जी बेस्वाद हो गई है। दूसरों के लिए खून पसीना बहाकर किए गए कठोर परिश्रम के बदले उसे जितना मिलता है, उससे उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आने के बजाय झुर्रियां ही बढ़ती हैं।
इसे देश की विडंबना ही कहा जाएगा कि दाल और सब्जी की आसमान छूती कीमत पर वह आम आदमी किसी को कुछ नहीं कहता और वातानुकूलित कमरे में बैठकर कीमती मोबाइल और लैपटॉप के जरिए चंद लोग इसके लिए सरकार को कोसते हैं। सियासत को जिम्मेदार ठहराते हैं।
मेरे ख्याल से ये वही लोग हैं, जिनके लिए महंगाई कोई मायने नहीं रखती। संपन्नता ने इन्हें न दाल सब्जी की कमी अखरने दी और न ही उसका भाव जाने की आवश्यकता ही महसूस होने दी है।
दिनोंदिन चंगुल फैलाती जा रही महंगाई की डायन को रोक पाने में आम आदमी के साथ सरकार की संभवत: इसीलिए असफल रही है, क्योंकि महंगाई के स्रोत को समझने का प्रयास नहीं किया गया। महंगाई बढ़ने के अहम कारणो पर ध्यान नहीं दिया गया। तरह-तरह की प्राकृतिक आपदाओं का शिकार किसान खाद्य पदार्थों के उत्पादन के मामले में आज जहां पिछड़ता जा रहा है, वहीं सेठ साहूकारों द्वारा कई गुना लाभ के चक्कर में आवश्यक खाद्य वस्तुओं का भंडारण कर महंगाई की डायन को ताकत दी जा रही है।
ऐसे अराजक सेठ साहूकारों द्वारा आवश्यक खाद्य वस्तुओं का संकट पैदा करने के चलते बाजार में हाहाकार की स्थिति उत्पन्न होती है और वहां भंडारित सामग्री मुंह मांगे दाम पर बेची जाती है, जिनके विरुद्ध कारवाई से सरकारें भी कतराती हैं, क्योंकि यही से नेताओं को चुनाव में चंदे मिलते हैं।
अर्थशास्त्र कहता है कि किसी भी वस्तु की मांग के अनुरूप जब आपूर्ति घटती है अथवा उस का उत्पादन कम होता है, तब मूल्यवृद्धि होती है। ऐसी स्थिति में चालाक साहूकारों की चांदी कटती है और निरीह बन चुके आम आदमी को निगलने के लिए महंगाई डायन सुरसा की तरफ मुंह फैलाए तैयार रहती है।
ऐसे में महंगाई को रोकने के लिए मांग के अनुरूप न तो आपूर्ति में वृद्धि हो रही है और न ही उत्पादन बढ़ाने की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं। इसके विपरीत विलासिता की वस्तुओं की कीमतें काफी हद तक नियंत्रित हैं और जीने के लिए अति आवश्यक जरूरी पदार्थों की कीमत अनियंत्रित है, जिसके पीछे किसानों की उपेक्षा संभवत: सबसे बड़ा कारण है।
मुझे आज बचपन के वह दिन याद आते हैं, जब भूमिहीनों को छोड़ शेष सभी परिवारों में कम से कम अपने खाने की सब्जियां उगाई जाती थीं। जिनके खेत नहीं होते थे, वे छप्परों पर लता वाली सब्जियां पैदा करते थे। चना, मटर, सरसों, अरहर, गन्ना व आलू आदि की खेती अनिवार्य रूप से की जाती थी।
गुड़ के आगे चीनी का स्वाद फीका होता था। मूंग, मसूर, उड़द, अलसी की फसल खेतों में लहलहाती थी। सावा, कोदो, ज्वार बाजरा, मक्का, सनई के साथ जौ, गेहूं, धान बेचने वाले अधिक और खरीदने वाले कम थे। तब लोग आत्मनिर्भर थे और आज बाजार पर निर्भर हैं।
अब आप ही सोचिए कि जब उत्पादन घटेगा और मांग बढ़ेगी तो परिणाम क्या होगा? जब किसी देश के अधिकांश नागरिक बाजार पर ही निर्भर होंगे तो जमाखोरो के हौसले तो बढेंगे ही। ..और आवश्यक वस्तुओं की कीमतें कहां तक स्थिर रह पाएंगी, यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। यदि महंगाई को नियंत्रित करना है तो उत्पादन में वृद्धि कर सबको आत्मनिर्भर होना होगा।
दूसरी तरफ दिनोंदिन महंगी होती जा रही बच्चों की शिक्षा और परिवार के स्वास्थ्य की देखभाल में आने वाले खर्च से परेशान किसानों की अपने खाद्य वस्तुओं को औने पौने दामों पर बेचने की विवशता भी एक बड़ी समस्या है, जिसका सीधा लाभ जमाखोर उठाते हैं।
बीते दिनों देश में बढ़े अरहर के दाल के संकट और छापेमारी में पकड़े गए जमाखोरों के भरे गोदाम व्यवस्था की किसी विकृति से कम नहीं हैं। लहसुन प्याज सहित तमाम हरी सब्जियों का बाजार में उत्पन्न संकट उसके मूल्यवृद्धि का कारण है।
खाद्य पदार्थों की बढ़ती महंगाई को नियंत्रित न कर पाने के लिए सरकारी मशीनरी भी कम जिम्मेदार नहीं है, क्योंकि सरकारें अनाज खरीदती हैं और खाद्य एजेंसिया उसे सड़ा डालती है। आंकड़े बताते हैं कि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में प्रतिवर्ष 56 हजार टन से अधिक खाद्यान्न सड़ जाता है और 18 करोड़ से अधिक लोग रात को भूखे सो जाते हैं। 19 करोड़ से अधिक लोग कुपोषण के शिकार हैं। इनकी सुध लेने की फुर्सत सरकारों के पास नहीं है।
खाद्य सुरक्षा बिल ऐसे लोगों के लिए किसी ‘शिगूफा’ से कम नहीं है। देश की जनता नेताओं की चाल अब धीरे-धीरे समझ रही है। वह जान चुकी है कि नेताओं को महंगाई और गरीबी का मुद्दा सिर्फ चुनाव में याद आता है। बाद में वे लोग विकास का नारा देते हैं। शायद वह नेताओं का अपना विकास होता है और उसकी चकाचौंध में उन्हें आम आदमी दिखता ही नहीं।
बात यह भी ध्यान देने की है कि आम आदमी उत्पादन में फिसड्डी क्यों है? सीधा सा जवाब है खाद्य पदार्थों के उत्पादन में आने वाली लागत इतनी अधिक है कि कृषि हमेशा घाटे का सौदा सिद्ध होती है। मजबूर होकर किसान कृषि से मुंह मोड़ लेता है। सरकारें यदि उत्पादन लागत घटाने की दिशा में कदम उठा ले तो काफी हद तक खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर अंकुश लगाया जा सकता है। यह कटु सत्य है कि जिस देश का अन्नदाता ही कमजोर होगा वह देश कैसे मजबूत होगा।
सर्वाधिक पतली हालत तो उस आम आदमी की है, जिसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सड़ा-गला अनाज खिलाया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि देश में अच्छी गुणवत्ता वाला अनाज नहीं है। परंतु वह बड़ी कंपनियों के गोदाम में अमीरजादो के लिए रखा गया है न कि मेहनत कस आम आदमी के लिए।
यह भेदभाव जब तक होता रहेगा, तब तक दुनिया के विकसित देशों के सामने भारत सिर नहीं उठा सकता। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार/स्तंभकार हैं)