उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी का तीन वर्षीय कार्यकाल हाल पूरा होने के बाद नए चेहरे की तलाश शुरू हो गई है। अनौपचारिक चैनलों, यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से विचार-विमर्श के सहारे संगठन और चुनावी चेहरे तलाश करने की आदी भाजपा नए प्रदेश अध्यक्ष के चयन और नियुक्ति में दुविधा और भ्रम की स्थिति में पड़ी है।
उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी का तीन वर्षीय कार्यकाल हाल पूरा होने के बाद नए चेहरे की तलाश शुरू हो गई है। अनौपचारिक चैनलों, यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से विचार-विमर्श के सहारे संगठन और चुनावी चेहरे तलाश करने की आदी भाजपा नए प्रदेश अध्यक्ष के चयन और नियुक्ति में दुविधा और भ्रम की स्थिति में पड़ी है।
नेतृत्व की ओर से नए चेहरे में दलित, पिछड़े या अगड़े को नामित किया जाए या वर्तमान अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी को ही 2017 की विधानसभा प्रकिया चलने तक दूसरा कार्यकाल दे दिया जाए, इस निर्णय अनिर्णय की वजह से उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय-पार्टी की राजनैतिक गतिविधियां लंबे समय से ठहराव ले चुकी हैं और एक करोड़ से ज्यादा भाजपा सदस्य बना लिए जाने के बावजूद संगठन के जारी चुनावों में कोई उत्साह ओर सक्रियता कहीं भी दिखाई नहीं दे रही है।
असल तो यह कि विगत छह-आठ महीनों की अवधि में उत्तर प्रदेश भाजपा सिर्फ मीडिया-अखबारी बयान और चैनलों के पटल पर पार्टी का पक्ष रखने ही गतिविधियां कर रही है। या फिर मंडलों और जिलों में दो-चार दर्जन नेता और कार्यकर्ता ही संगठन चुनाव की जरूरत को पूरा कराकर इतिश्री करने में लगे हुए हैं।
सच तो यह है कि भाजपा खेमे में प्रदेशभर में कोई जोश नहीं है। संगठन के मंडल और जिला स्तर के चुनाव की प्रक्रिया 30 दिसंबर तक सम्पन्न होनी है, पार्टी में संगठन के लिए महत्वपूर्ण जिला अध्यक्षों और प्रांतीय परिषद के सदस्यों का चुनाव होना है।
पार्टी के प्रदेश सचिव अनूप गुप्ता कहते हैं, ये ही दोनों मिलकर प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय परिषद के सदस्यों का चयन करेंगे, ऐसा ही पार्टी के संविधान में प्राविधान है। हालांकि उत्तर प्रदेश भाजपा में 1980 में स्थापना के समय से आजतक सिर्फ एक बार ही राज्य अध्यक्ष का चुनाव हो पाया है। हमेशा से तो नेतृत्व द्वारा विचार-विमर्श कर जिस किसी को नामित-मनोनीत ही किया गया, उसी को बाद में प्रदेश परिषद की बैठक में अनुमोदन कराकर अध्यक्ष निर्वाचन की औपचारिकता पूर्ण की जाति रही है।
वर्तमान उत्तर-प्रदेश इकाई के अध्यक्ष मेरठ से विधायक निर्वाचित लक्ष्मीकांत वाजपेयी ब्राह्मण चेहरा हैं और बसपा में ब्राह्मण वर्ग को लगातार मिल रहे महत्व के बाद भाजपा की दुविधा को समझकर दोबारा अध्यक्ष बनने की उनमें प्रबल इच्छा भी है। इसी कारण उनके नजदीकी कह रहे हैं कि दिल्ली नेतृत्व जल्द तय करे कि वाजपेयी को लखनऊ में यथावत रखना है अथवा दिल्ली में उपाध्यक्ष बनाना है। इसके पीछे वाजपेयी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव में भाजपा का धमाकेदार प्रदर्शन करने का तर्क दिया जा रहा है। असल वजह भले ही मोदी लहर रही हो।
वाजपेयी के विरोधी हालांकि नहीं मानते कि 2017 के विधानसभा चुनाव तक इतना दमखम और राजनैतिक गर्मी आयुर्वेदिक डॉक्टर वाजपेयी में अकेले बनी रह सकेगी। वहीं जिस तरह से वाजपेयी अपने कार्यकाल में राज्य की टीम को दरकिनार कर खुद ही हर कोने पर मोर्चा संभालते रहे हैं, उससे भी असंतुष्ट लोगों की कमी नहीं।
कद्दावर मंत्री रहे और वर्तमान में उपाध्यक्ष एक नेता के मुताबिक, लक्ष्मीकांत वाजपेयी एक समय राजनाथ सिंह खेमे के चहेते थे, पर बाद में नितिन गडकरी के साथ ‘लुढ़क’ गए। वहीं पार्टी संगठन से लेकर प्रदेश मुख्यालय तक में फेरबदल को लेकर उनके कई निर्णयों का दबी जुबान में विरोध भी होता रहा है। ऐसे में सब कुछ इतना आसान भी नहीं।
खुद प्रदेश उपाध्यक्ष हरिद्वार दुबे खुलकर प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी की कार्यशैली पर सवाल खड़े कर रहे हैं। 1991-92 में मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की सरकार में मंत्री रह चुके और वर्तमान में प्रदेश उपाध्यक्ष हरिद्वार दुबे प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत के काम करने के तौर-तरीके पर सवाल उठाते हुए कहा है कि उनका यह व्यवहार राज्य भाजपा के पदाधिकारियों को ‘नपुंसक’ बनाने जैसा है।
इस बीच वाजपेयी के बदले अगड़ों में ठाकुर चेहरा डॉ. महेंद्र सिंह को असम प्रभारी से लखनऊ लाने की चर्चा होती रहती है, तो कभी ब्राह्मण समुदाय से दूसरा नाम पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष लखनऊ के मेयर डॉ. दिनेश शर्मा का सामने आता रहता है।
हालांकि डॉ. दिनेश शर्मा को भविष्य में मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने की चर्चा प्रदेश अध्यक्ष के रूप में उनके नाम को पीछे कर देती है। इन सबके बीच पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व सामाजिक समीकरण और राजनीतिक स्वीकार्यता के नेता की तलाश में अप्रत्यक्ष तौर से जुटा होना बताया जा रहा है, लेकिन हकीकत यह नहीं है।
दरअसल, नेतृत्व की इच्छा तो मोदी और शाह जोड़ी के स्वीकार्य नेता को लाने की है, सटीक नेतृत्व नहीं मिलने पर मौजूदा अध्यक्ष को ही 2017 तक के लिए आगे बढ़ाया जा सकता है।
दुविधाग्रस्त भाजपा नेतृत्व की नजर मायावती के दलित और सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के पिछड़ा वर्ग वोट बैंक पर भी है। पार्टी संगठन से जुड़े लोगों का कहना है कि बिहार विधानसभा चुनाव के पहले तक पार्टी यूपी में पिछड़ा वर्ग से प्रदेश अध्यक्ष बनाने की रणनीति पर काम कर रही थी। धर्मपाल सिंह और स्वतंत्र देव सिंह जैसे नाम सामने आ रहे थे, लेकिन बिहार में हार ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को अपनी पिछड़े-अति पिछड़े का राग अलापने की रणनीति पर पुन: सोचने को विवश जरूर किया है और बड़ों के बीच पुनर्विचार चालू है।
हालांकि पार्टी पहले भी हिन्दू चेहरा माने जाने वाले पिछड़े वर्ग से कुर्मी नेता के नजरिये से विनय कटियार, ओम प्रकाश सिंह को प्रदेश भाजपा की कमान सौंप चुकी है, लेकिन इस प्रयोग का पार्टी को वोट प्राप्ति के नजरिये से राजनीतिक लाभ चुनावों में बिलकुल भी नहीं मिल पाया है।
वर्ष 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के लिए जातिगत वोट बैंक को मजबूत करने के क्रम में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए दलित नेता के रूप में राम शंकर कठेरिया का नाम उछला हुआ है। दलित नेता कठेरिया को आगे करने की मंशा मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने की है। कठेरिया चुनाव जीतते भी रहे हैं और खास बात यह कि मायावती के विगत मुख्यमंत्री कार्यकाल में भाजपा को बसपा के सामने आगरा मंडल में संघर्ष के द्वारा खड़ा करने का असरकारी प्रयास भी उन्होंने किया।
साथ ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह की ‘गुडबुक’ में भी उनका नाम शामिल है, जिस कारण आगरा यूनिवर्सिटी में शिक्षक डॉ. कठेरिया केंद्र में राज्यमंत्री भी बने। वैसे विगत में राज्य इकाई के पिछड़े और अगड़े जातियों से अध्यक्ष रह चुके कलराज मिश्रा, ओम प्रकाश सिंह, विनय कटियार, केशरीनाथ त्रिपाठी, रमापति राम त्रिपाठी और सूर्य प्रताप साही का कार्यकाल मुलायम तथा मायावती की सरकारों से निकटता के लिए जाना जाता रहा है।
यही कारण है कि 2004 में सत्ता से बाहर हुई भाजपा के हिंदुत्व के मतों में लगातार भारी गिरावट आई है और विधायकों की संख्या में लगतार से कमी होती रही है। यहां तक कि कई प्रदेश अध्यक्ष तो चुनाव में पराजित हो पार्टी की किरकिरी भी करा चुके हैं। यही वजह है कि भाजपा केंद्रीय नेतृत्व में उत्तर प्रदेश को लेकर खासी चिंता बनी हुई है।
कहा जा रहा है कि दिसंबर के आखिरी या जनवरी-2016 के मध्य तक प्रदेश अध्यक्ष तय करने के लिए भाजपा के नई दिल्ली मुख्यालय में कवायद तेज हो चुकी है। नेतृत्व की योजना अखिलेश सरकार के विरुद्ध जनता की पसंद वाला प्रभावी आंदोलन करने का जज्बा रखने वाले नेता को प्रदेश अध्यक्ष पद की कमान सौंपने की है। इनमें योगी आदित्यनाथ, वरुण गांधी जैसे फायर ब्रांड नेताओं के नामों की भी सुगबुगाहट है।
कांग्रेस में निर्मल खत्री को बदलने की सुगबुगाहट :
जहां भाजपा के विरोधी दल बसपा और सपा 2017 के उत्तर प्रदेश मिशन की कामयाबी के लिए खासे सक्रिय हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में सबसे कमजोर स्थिति वाली कांग्रेस सत्ता से बाहर के करीब तीन दशक पूरे करने की और अग्रसर है।
हाल में बिहार विधानसभा चुनाव में उम्मीद से कई गुना बढ़कर चुनावी सफलता अर्जित करने के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता उत्साहित हो युवराज राहुल गांधी की अगुवाई में यात्रा, पदयात्रा कर अपनी विरोधी भाजपा और मित्रवत विरोधी समाजवादी पार्टी के खिलाफ किसानों के मुद्दों को लेकर सड़क पर उतरते दिखने लगे हैं।
हालांकि प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष निर्मल खत्री भी अपना कार्यकाल पूर्ण कर चुके हैं। खत्री को बदलने की राज्य के कांग्रेसजनों की ओर से लोकसभा चुनाव बाद पुरजोर तरीके से मांग उठी थी, लेकिन दिल्ली के जनपथ दरबार द्वारा बदलाव की मांग पर ध्यान नहीं देने और लगातार अनसुनी के बाद तथा उत्तर प्रदेश कांग्रेस प्रभारी कांग्रेस महासचिव मधुसूदन मिस्त्री की ओर से मिले संकेत में निर्मल खत्री फिलहाल पद पर बने हुए हैं।
हालांकि खत्री को बदलने के इंतजार में राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड के सदस्य पूर्व केंद्रीय मंत्री आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद भी थे। वहीं जो दो अन्य नाम आगे आते रहे हैं, उनकी बात करें तो कांग्रेस के जानकारों के मुताबिक पूर्व अध्यक्ष एवं विधायक रीता बहुगणा जोशी के जुझारू रवैये के बावजूद और राज्यसभा सदस्य प्रमोद तिवारी की समाजवादी पार्टी से अंतरंगता के कारण यह दोनों चेहरे राहुल गांधी को बिलकुल नापसंद हैं।
इन सबके बीच कांग्रेस में नेतृत्व से सहज संबंध और प्रदेश के कांग्रेस नों से सहज एक चेहरा पूर्व कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल देर-सवेर एक बार फिर उत्तर प्रदेश कांग्रेस की बागडोर संभल सकते हैं, इस बात की भी चर्चा है। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं)