कहते हैं कि बड़े पदों पर पदासीन लोग ही आदर्श पेश करते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के पुलिस विभाग के मुखिया जगमोहन यादव ने जाते-जाते अपना जो विराट रूप दिखाया है, उसने उनके महकमे के लोगों के बीच ही उनकी स्थिति हास्यास्पद हो गई है।
कहते हैं कि बड़े पदों पर पदासीन लोग ही आदर्श पेश करते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के पुलिस विभाग के मुखिया जगमोहन यादव ने जाते-जाते अपना जो विराट रूप दिखाया है, उसने उनके महकमे के लोगों के बीच ही उनकी स्थिति हास्यास्पद हो गई है।
यही नहीं, पूरे देश की नौकरशाही में इस बात को लेकर उनका मखौल उड़ाया जा रहा है कि किस तरह उन्होंने एक अच्छे उद्देश्य को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश को अपने हित में उपयोग करने की ओछी हरकत की। एक तो अपने तमाम वरिष्ठों को दरकिनार कर प्रदेश की सर्वोच्च कुर्सी हासिल करने में वह सफल रहे, लेकिन छह महीने गुजारने के बाद भी उनका मन नहीं भरा और उनके मन में इस पद पर लंबे समय तक कब्जा जमाए रखने की लालसा जागृत हो गई।
उन्होंने ऐसा दांव खेला कि जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे यानी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को फाइलों में से निकाल लाए और उसे कोर्ट में याचिका के रूप में पेश करा दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2006 में पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह की याचिका पर यह निर्देश दिया था कि प्रदेश में डीजीपी का कार्यकाल दो वर्षो का होना चाहिए।
अभी तक डीजीपी जैसे पदों पर एक-दो महीने के लिए भी लोग तैनात होते रहे हैं। किसी भी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के इन आदेशों को नहीं माना था और अपने मन मुताबिक तैनातियां करते रहे थे।
जगमोहन यादव की तरफ से जो याचिका दायर की गई थी, उसके अनुसार, उनका कार्यकाल 31 दिसंबर, 2015 को समाप्त हो रहा है लेकिन इस पद पर उन्होंने मात्र छह महीने ही पूरे किये हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के तहत उन्हें दो वर्ष का सेवा विस्तार मिलना चाहिए।
यह याचिका दायर करने वाला यह भूल गया कि समाजवादी पार्टी के शासनकाल में ही कई डीजीपी कुछ महीनों के लिए तैनात होकर रिटायर हो चुके हैं। साढ़े तीन साल में सात डीजीपी बदल चुके हैं। ए.के. गुप्ता का कार्यकाल तो मात्र एक माह का ही था।
याचिकाकर्ता को उस समय सुप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों की याद नहीं आई, जबकि हर तैनाती के समय मीडिया जगत प्रकाश सिंह की याचिका पर चर्चाओं से भरा रहता था।
चूंकि जगमोहन यादव समाजवादी पार्टी के अंदरखाने से जुड़े रहे हैं और उनको सेवा विस्तार मिलने से सरकार को कोई परेशानी नहीं हो रही थी, इसलिए ऐसा दांव चुना गया, जिससे जगमोहन को सेवा विस्तार मिल जाए और सरकार की आलोचना भी न हो कि अपने स्वजातीय को संरक्षण दिया।
साथ में यह भी प्रचारित किया गया कि जगमोहन यादव के इस कदम से सरकार को परेशानी हो रही है और उन्हें कोर्ट द्वारा राहत न मिलने से सरकार फजीहत से बच गई है। कोर्ट द्वारा लाभ लेने की यही रणनीति लोकायुक्त के रूप में वीरेंद्र सिंह के चयन में भी अपनाई गई थी। स्वजातीयों को दूसरे रास्ते से लाभान्वित करने का यह नया रास्ता सरकार के रणनीतिकारों ने खोज निकाला है।
यहां पर सवाल यह उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय के जिस आदेश की आड़ लेकर यह सब खेल किया जा रहा था, उसमें न सिर्फ कुछ तथ्य छिपाए गए हैं, बल्कि अपनी नैतिकता को भी ताक पर रख दिया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में सिर्फ डीजीपी के कार्यकाल को ही दो वर्ष करने का निर्देश नहीं है, बल्कि थानाध्यक्ष और पुलिस अधीक्षकों का भी कार्यकाल दो वर्ष करने का निर्देश है।
लेकिन अब तक न तो थानेदारों का और न ही पुलिस अधीक्षकों का कार्यकाल दो वर्ष रखा गया है। डीजीपी जगमोहन यादव के कार्यकाल में थानेदारों और पुलिस अधीक्षकों को दो वर्ष तक रखने की जगह महीने-दो महीने और हफ्ते भर में ही पदस्थापित किया जाता रहा है। प्रदेश पुलिस का जो मुखिया जिस आदेश का लाभ लेकर अपने पद पर काबिज रहना चाहता है, वह खुद अपनी कलम से उन निर्देशों को मानने से इनकार कर देता है, यह कैसी नैतिकता है?
जहां तक डीजीपी पद पर तैनाती का मामला है, इन पदों पर अधिकतर वे ही लोग पंहुच पाते हैं, जिनकी सेवानिवृत्ति को साल-दो साल या उससे कम का भी वक्त रहता है। ऐसे में उन्हीं लोगों को डीजीपी के पद पर चुना जाता है, जिनकी राजनैतिक और पारिवारिक निष्ठा के बारे में कोई संदेह नहीं रहता है।
यानी यह मानकर चला जाता है कि जो प्रदेश सरकार के मुखिया का सबसे अधिक मनपसंद होगा, वही इस पद को सुशोभित कर पाएगा, जबकि विवादों से बचने के लिए वरिष्ठता के क्रम में इस पद पर दावेदारी होनी चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रकाश सिंह की याचिका पर जो आदेश दिए थे, उसमें किसी भी डीजी को डीजीपी बनाकर दो वर्ष का सेवा विस्तार दे देने जैसी बात नहीं थी, वरना सरकार को कोई भी खासमखास रिटायरमेंट से एक दिन पहले डीजीपी बनकर एक साल 364 दिन का सेवा विस्तार अधिकारपूर्वक हासिल कर सकता था और इस लाभ के लिए अफसरों में जबरदस्त प्रतिस्पर्धा हो जाती। इस तरह का मामला केंद्र में विदेश सचिव की तैनाती के रूप में देखा जा चुका है।
सुजाता सिंह को रिटायरमेंट से पूर्व ही हटाकर जयशंकर को विदेश सचिव बना दिया गया, जबकि उसी दिन वह सेवानिवृत होने वाले थे। सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई के निदेशक के पद पर दो साल तक की स्थायी तैनाती सुनिश्चित करने के लिए विनीत नारायण के केस में यह निर्देश दिये थे।
इस निर्देश का लाभ रक्षा और गृह सचिव के साथ निदेशक आईबी और विदेश सचिव के पदों पर भी दिया गया। लेकिन राज्य के पुलिस महानिदेशकों के मामले में यह नजीर नहीं बन पाया है, क्योंकि राज्यों में तबादला नीति के तहत एक बोर्ड बनाने के फरमान पहले ही जारी किया जा चुका है, जिसकी संस्तुति पर ही तबादले होते हैं। यह बात दूसरी है कि व्यावहरिक रूप से यह बोर्ड सिर्फ दिखाने वाला दांत रह गया है।
सपा सरकार के सत्ता में आने के बाद ही 19 मार्च 2012 को अतुल को हटाकर एसी शर्मा को नया डीजीपी बनाया गया था। इसके बाद देवराज नागर, रिजवान अहमद, आनंद लाल बनर्जी, अरुण कुमार गुप्ता, अरविंद कुमार जैन और फिर जगमोहन यादव डीजीपी बने।
अपने कार्यकाल के दौरान अस्वस्थ रहने वाले आनंद लाल बनर्जी अखिलेश सरकार के सबसे ज्यादा समय तक डीजीपी रहने वाले आईपीएस बने। इसके बावजूद इनमें से किसी का भी कार्यकाल दो वर्ष का नहीं रहा।
प्रदेश में डीजीपी की नियुक्ति के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने जो निर्देश दिये हैं उसके अनुसार, वरिष्ठता के आधार पर टाप तीन अफसरों में से ही किसी एक का चयन किया जाना था और चयनित अफसर को दो वर्ष का कार्यकाल दिए जाने की सिफारिश की गई थी।
अगर इस नीति का पलन किया जाए, तो जगमोहन यादव डीजीपी के ही उम्मीदवार नहीं हो सकते थे, क्योंकि इनसे कई अधिक वरिष्ठ अफसर डीजीपी बनने की कतार में खड़े थे।
वरिष्ठता के आधार पर देखा जाए तो सूबे में 1979 बैच के आईपीएस रंजन द्विवेदी, 1980 बैच के सुलखान सिंह, 1981 बैच के विजय सिंह हैं। इसके बाद साल 1982 बैच के तीन आईपीएस विजय कुमार गुप्ता, प्रवीण सिंह और सूर्यकुमार शुक्ला का नंबर आता है।
1983 बैच के आईपीएस राजीव राय भटनागर, ओमप्रकाश सिंह, 1984 बैच के पांच आईपीएस डीजीपी बनने की अर्हता रखते हैं। इसके बावजूद अखिलेश यादव ने 1984 बैच के आईपीएस जगमोहन यादव को डीजीपी बना दिया था।
जगमोहन यादव का नंबर काफी नीचे था, लेकिन सरकार से करीबी और स्वजातीय होना ही उनके काम आया। इसके बाद भी प्रकाश सिंह की याचिका की आड़ में अगले दो वर्षों पर अपना कब्जा बनाया रखना उनके पद और शिक्षा के अनुरूप नहीं लगता था। लोग पूछते हैं कि ऐसी क्या खास बात है इस पद में कि आप इसे छोड़ना नहीं चाहते या फिर ऐसा क्या एजेंडा बचा रह गया है प्रदेश हित में, जिसे आप ही लागू कर पाएंगे और आपका इस पद पर बने रहना आवश्यक है?
अपने छह माह के कार्यकाल में आपने किसी तरह की अपनी पहचान भी नहीं बनाई है और आप यह कहने में भी संकोच नहीं करते कि ‘रामराज में भी दुष्कर्म होते थे’ और ‘अकेले में मिलिए तो बताएं कि रेप कैसे होता है।’
एक तरह से जगमोहन यादव का कार्यकाल कीर्तिहीन ही रहा और ऐसे में किसी याचिका का तोड़-मरोड़कर स्वहित में लाभ लेना अनैतिक ही माना जाएगा। कम से कम अपने नीचे की फोर्स और अफसरों को कोई ऐसा संदेश दे पाने में असमर्थ ही रहे, जिससे उनकी निजी जिंदगी या समाज या फोर्स की कार्यप्रणाली में कोई परिवर्तन दृष्टिगत हो। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक मान्यता प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार हैं,ये उनके निजी विचार हैं)