नीतीश कुमार की छवि गंभीर राजनेता की रही है। इस स्तर पर उन्हांेने करीब दो दशकों तक लालू यादव को नापसंद किया। वह लालू की कार्यशैली ही नहीं, भाषण शैली के भी विरोधी रहे हैं। उन्हें लगता था कि लालू ‘विदूषक’ की तरह बातें करते हैं। विकास और सुशासन से उनका कोई लेना-देना नहीं है।
नीतीश कुमार की छवि गंभीर राजनेता की रही है। इस स्तर पर उन्हांेने करीब दो दशकों तक लालू यादव को नापसंद किया। वह लालू की कार्यशैली ही नहीं, भाषण शैली के भी विरोधी रहे हैं। उन्हें लगता था कि लालू ‘विदूषक’ की तरह बातें करते हैं। विकास और सुशासन से उनका कोई लेना-देना नहीं है।
नीतीश मानते थे कि लालू बेसिर-पैर की बातों से वह अपने को चर्चा में बनाए रखते हैं। नीतीश की दो दशक पुरानी गंभीरता इधर दो वर्ष में हल्की पड़ी है।
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर लालू और नीतीश दोनों की टिप्पणी लगभग एक जैसी थी, अंदाज थोड़ा अलग था। लालू इस शैली के पुराने खिलाड़ी हैं, इसलिए अधिक विस्तार और गहराई से बोले। नीतीश अभी सीख रहे हैं, इसलिए एक लाइन की टिप्पणी करके रुक गए। लेकिन इतने से ही इतना खुलासा अवश्य हुआ कि नीतीश पर लालू का रंग चढ़ रहा है। लालू को बदल पाना नीतीश के बस की बात नहीं। नीतीश ऐसी बातें सीख रहे हैं, इसलिए अधिक उत्साह दिखा रहे हैं। इस बार पहल उन्हीं ने की। लालू उसी सूत्र को पकड़कर आगे बढ़े।
बात अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की चल रही थी। पहले बोले होते तो इस विषय पर अवश्य गंभीर टिप्पणी करते। आखिर पूरी दुनिया की निगाहें भारत पर लगी थीं। यहीं से उन्हें प्रेरणा लेनी थी। नीतीश बदल चुके हैं। बोले- अमित शाह का शरीर देखा है, उन्हंे घर में योग करना चाहिए।
लालू को लगा कि नीतीश ऐसी बातों में उनसे बाजी मारना चाहते हैं। वह यह स्थान भी छीनना चाहते हैं। मुख्यमंत्री पद की दावेदारी उन्होंने पहले ही हथिया ली, अब लालू के अंदाज पर भी उनकी नजर है। फिर क्या था, नीतीश ने जहां बात छोड़ी थी, वहीं से आगे बढ़ा दी। इस तरह उन्होंने नीतीश के मुकाबले बड़ी लकीर खींची। लालू बोले- यह योग दिवस नहीं, तोंद दिवस है। गनीमत है कि विश्व मीडिया में लालू को तरजीह नहीं मिली, अन्यथा यह एक बयान भारत की प्रतिष्ठा कम करता।
दुनिया जहां से सीखना चाहती है, वहीं एक नेता इसे ‘तोंद दिवस’ बता रहा है। लालू जब यह कह रहे थे, तब जाहिर है, उन्हें अपना तोंद दिखाई नहीं दिया होगा लेकिन भाजपा के तोंद वाले नेताओं के नाम गिनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। लालू की बात गलत नहीं थी। योग करने वाले नेता अलग ही दिखाई देते हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि देश और विश्व की नई पीढ़ी का भविष्य संवारने वाले प्रयास छोड़ दिए जाएं।
पुरानी पीढ़ी के जो नेता योग नहीं कर सकते, उनका भी कर्तव्य है कि वह नई पीढ़ी का योग करने के लिये प्रेरित करें। क्या खुद अस्वस्थ रहकर भावी पीढ़ी को स्वस्थ रखने के प्रयास नहीं होने चाहिए। जो नेता योग सम्मेलनों में शामिल हुए उन्होंने अपने दयित्व का निर्वाह किया। नीतीश-लालू के तंज से बच्चे, युवक स्वस्थ नहीं होंगे।
अंतत: बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने सरकारी आवास खाली कर दिया। ऐसा माना जा रहा था कि नए मुख्यमंत्री के आने तक वह इस आवास में बने रहेंगे। लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वहां लगे आम के पेड़ों पर पहरा क्या लगाया, मांझी का मन बहुत आहत हो गया।
बताया जाता है कि तभी से उन्होंने अपने परिजनों से सामान समेटने को कह दिया था। नए आवास की तलाश भी तेजी से होने लगी। जैसे ही आवास मिला, मांझी ने मुख्यमंत्री का सरकारी आवास खाली कर दिया। लेकिन चलते-चलते उन्होंने नीतीश को उन्हीं की बात पर जवाब दिया।
मांझी बोले- ‘मैं नीतीश के लिए आम और लीची छोड़कर जा रहा हूं।’ बताया जाता है कि जब से पेड़ों के इर्दगिर्द फोर्स तैनात हुई, मांझी परिवार के किसी छोटे बच्चे ने भी उधर नहीं देखा। इन सबके लिए यह भावनात्मक मुद्दा बन गया।
गर्मी की छुट्टी में मांझी के निकट संबंधियों के कई बच्चे वहां आए थे, लेकिन सभी ने संयम दिखाया, वैसे बच्चों के लिए पेड़ पर लगे फलों को तोड़ने से अपने को रोकना बड़ा मुश्किल होता है। लेकिन संगीनों की छाया दहशत उत्पन्न करती है। यही नजारा पटना में मुख्यमंत्री आवास का था।
मांझी जो मुद्दा उछालकर मुख्यमंत्री आवास से बाहर निकले हैं, उसका दलित समाज पर असर देखा जा रहा है। उन्हें लग रहा है कि उनके समाज के नेता को अपमानित करके आवास छोड़ने को बाध्य किया गया।
कुछ समय बाद आम, लीची की फसल खत्म हो जाएगी। पेड़ फिर फलविहीन हो जाएंगे, लेकिन चुनाव में यह फसल लहराती दिखाई देगी। कभी-कभी छोटी लगने वाली बातें भी भावना और सम्मान के स्तर पर बड़ा असर डालती हैं। मांझी इसे दलित सम्मान का मुद्द बनाएंगे। (आईएएनएस/आईपीएन)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)