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विश्राम का मूल और सुख धाम है ‘घर’

June 9, 2015 10:05 pm by: Category: सम्पादकीय Comments Off on विश्राम का मूल और सुख धाम है ‘घर’ A+ / A-

ghar-sita-mutu-house1घर आश्वस्ति है। विश्राम का मूल और सुखधाम। मनुष्य श्रम करता है, पीड़ित व्यथित होता है, थकता है टूटता है। अपमान भी सहता है। घर लौटता है। घर ही आश्रय है। आधुनिक समाज ने बड़े-बड़े होटल बनाए हैं। इलेक्ट्रानिक बटन से दरवाजा खुलता है, बटन से पानी के फव्वारे। वातानुकूलन के साथ संगीत। सर्दी में सुखदायी ताप और भयंकर गर्मी में ठंडी हवाएं। महंगे होटल संचालकों का दावा है कि उनके होटल घर जैसे हैं। हम सबके चित्त में घर ही सबसे सुखद आश्रय है। अपने घर की गंध प्यारी होती है। परिजन प्रीति से हहराती भरीपूरी। घर सुवास चिन्ताहरण गंध है। आधुनिक सभ्यता ने बहुत बड़े घर बना लिए हैं। ऐसे दैत्याकार घर साधारण जन मन को आतंकित करते हैं। यहां प्रीति गंध नहीं, परिजन एकात्म नहीं। खंडित मन विखण्डित घर। घर के भीतर सबके अपने घर। सब साथ नहीं बैठते, साथ नहीं रमते। घर के भीतर भी राष्ट्रों जैसी सीमाएं हैं।

भारतीय जीवन ²ष्टि में घर की श्रद्धेय महिमा रही है। जीवन की सभी प्राप्तियों और उपलब्धियों का उल्लास केन्द्र रहे हैं घर। टूटे थके मन की पुनर्नवा ऊर्जा देने वाले केन्द्र। जहां-जहां सुख और आश्वस्ति वहां-वहां घर की अनुभूति।

ऋग्वेद के समाज में घर की महिमा थी। यहां देवी-देवता भी घर वाले हैं। यहां वन-जंगल को भी घर जैसा देखा गया है। ऋषि को वन, वृक्षांे की लताएं, डालियां आदि घर जैसी दिखाई पड़ती हैं। जंगल की देवी ‘अरण्यानी’ है। कहते हैं “सायंकाल लकड़ी चारा आदि से लदे वाहन जंगल से बाहर जाते हैं, मानो अरण्य देव इस सामग्री को अपने घर भेज रहे हैं।”

मित्र और वरूण ऋग्वेद के बड़े देव हैं। स्वाभाविक ही इनका घर भी प्रतिष्ठानुरूप बड़ा होना चाहिए। बताते हैं कि ‘मित्र और वरूण के घर हजार खंभो वाले हैं। (2.41.5) वरूण का घर सुंदर और बड़ा है। जान पड़ता है कि उनके एक उपासक का घर मिट्टी का है। स्तुति है ‘हे वरूण! मैं मिट्टी के घर में नही रहना चाहता। मुझे सुंदर घर चाहिए।’

अग्नि के लिए कहते हैं ‘अग्नि सत्कर्मी है, अपने इस रूप में वे हरेक घर में हैं।’ (1.128.4) घर दिव्यता भी है। अग्नि भी अपने घर में शोभायमान हैं। यहां अग्नि की कृपा भी ‘घर जैसी’ है। ऋषि ऐसे अग्नि देव को नमस्कार करते हैं। इन्द्र प्रकृति की विराट शक्ति है और अग्नि तो विज्ञान सिद्ध भी हैं। बेघर वे भी नहीं हैं। ऋषि उन्हें अपने घर बुलाते हैं, ‘वे अपने घर में हों या बाहर। हमारे घर निमंत्रण में आएं।’

ऋषि ने इन्द्र को घर बुलाया है। उनसे स्तुति है कि ‘सोमपान करो और अपने घर जाओ।’ सोमपान के बाद घर लौटना ही उचित भी है। ऋषि ने मरूत देवों का आह्वान किया। वे गण रूप हैं। ऋषि कहते हैं, ‘हम अपके लिए बड़ा घर तैयार कर चुके हैं।’ ऐसे ऋषियों दार्शनिकों के घर मजेदार हैं। कहते हैं, ‘हम देवों जैसा प्रकाशमान तेज ज्ञान की आंखों से अपने घर में देखते हैं।’

वृद्धावस्था जीवन की सांझ है। सांझ समय सब घर लौटते हैं। ऋग्वेद के ऋषियों के लिए वृद्धावस्था भी घर है। शिशु हुए, खेले, मस्त रहे। तरूणाई आई। जीवन ऊर्जा खिली। यत्र तत्र, सर्वत्र घूमे। कुछेक दूरी तक तन से बाकी मन से। बहुत चले, गिरे, उठे। जीते, हारे। जीवन चक्र में नाचे। कालरथ पर गतिशील रहे। यही काल लाया बुढ़ापा। अब लौटना है स्वयं की ओर। ऋषि अश्विनी देवों से स्तुति करते हैं ‘मैं अधिपति बनूं। दीर्घजीवी होऊं। ज्ञान प्राप्त करते हुए अपने घर में प्रवेश करने जैसी वृद्धावस्था पाऊं।’

वृद्धों को अपना घर अच्छा लगता है। आधुनिक समाज के अनेक धनाढ्य पुत्र अपने बूढ़े पिता को अमेरिका, इंग्लैण्ड या भारत के महानगरों में अपने साथ रखना चाहते हैं। पिताश्री को पुत्रों के वातानुकूलित आधुनिक घर नहीं भाते। मेरे अनेक मित्रों ने अपने पिता के ऐसे हठ का अनेकश: उल्लेख किया है। घर मूल है। मूल में जीवन रस है। वृद्धावस्था भी घर है। सो घर ही मानसिक आत्मिक शान्ति देता है।

घर असाधारण आश्रय है। कर्म, श्रम और विश्रम का स्थान। ऋग्वेद के ऋषियों की घर प्रीति अन्यत्र संदर्भो में भी छाई हुई है। जहां घर है, वहां द्वार भी होगा ही। घर द्वार की चिन्ता परिवार की चिन्ता मानी जाती है। ऋषि समूची सृष्टि को भी घर की तरह देखते हैं। बताते हैं कि ब्रह्माण्ड के द्वार पूरब दिशा में खुलते हैं, यहां प्रात: प्रकाश आ जाता है। ब्रह्माण्ड घर भले न हो, हो सकता है कि उसमें द्वार भी न हो लेकिन ऋषि चित्त की घर चेतना ध्यान देने योग्य है।

ऋग्वेद के अनुसार विश्वकर्मा या विष्णु ने विश्व बनाया। जैसे बाकी लोग घर बनाते हैं, विष्णु या विश्वकर्मा ने विश्व बना डाला। मूल विषय घर है। इस समाज में घर द्वार की लत मजेदार है। अग्नि देव के लिए कहते हैं ‘अग्नि अंधकार के द्वार खोलते हैं। ऊषा भी अंधकार के द्वार खोलती है।’ वैदिक समाज की घर प्रीति ऋग्वेद में छाई हुई है। पुरातत्व में इसके साक्ष्य नहीं हैं।

हड़प्पा सभ्यता ऋग्वैदिक सभ्यता का विस्तार है। डॉ. भगवान सिंह ने ‘हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य’ (खण्ड 1) में लिखा है ‘आवास के विषय में जिन आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति हुई है वह बड़ा हो, खुला लम्बा चैड़ा हो, अछिद्र मजबूत हो। राजाओं के निवास के संदर्भ में ध्रुव उत्तम और सहस्त्र द्वार या हजार खंभों वाले घर का उल्लेख हड़प्पा के आवासों से इतना साम्य रखता है कि इससे अधिक की आशा ऋग्वेद से करना दुराग्रह पूर्ण होगा।’

वैदिक समाज के घर का केन्द्रीय तत्व है दम्पत्ति। दम का शाब्दिक अर्थ है घर और पति का अर्थ स्वामी। लेकिन दम्पत्ति का सामान्य अर्थ पति-पत्नी का जोड़ा है। विवाह बिना घर अधूरा है। इसलिए विवाह को ‘घर बसाना’ कहा जाता है। विवाह हुआ तो पति-पत्नी दम्पत्ति हो गये। अग्नि देव दोनों का मन मिलाते हैं – दंपति समनसा कृणोषि।

प्राचीन समाज में पत्नी और पति बराबर थे। बताया है कि ‘दोनों साथ-साथ उपासना पूजा करते हैं और मिल कर सोम निचोड़ते हैं।’ वैदिक समाज की आंनद मगन प्रवृत्ति का कारण व्यवस्थित घर है। यह पति पत्नी के सम्मान वाला समाज है। ऋषियों के काव्यसृजन, मस्ती और उत्साह को भरपूर बनाने का केन्द्र यही घर करता है। ऋषि इन्द्र के लिए प्रशस्ति काव्य गाते हैं। कैसे गाते हैं? बताते हैं जैसे कोई पति अपनी पत्नी की प्रशंसा के गीत गाता है।

उस समाज के घर पति पत्नी की कलह के केन्द्र नहीं थे। इनमें बिन ब्याहे जोड़े ‘लिव इन’ तर्ज पर नहीं रह सकते थे। विवाह और घर के बिना देवता भी बेकार। सभी समाज अपने सुन्दरतम सपने ही देवों पर आरोपित करते हैं। घर सुन्दर है। इसलिए सभी देवों के पास घर है। पति पत्नी मिलकर ही घर की सुन्दरता के कारक हैं सो देवों की भी पत्नियां हैं। एक मंत्र में अनुरोध है कि 33 देवता पत्नियों सहित यज्ञ-निमंत्रण में पधारें।’

घर का मुख्य घटक है परस्पर प्रेम। मूर्ति न हो तो विशाल और भव्य मंदिर का क्या अर्थ? घर में दंपति हों, खिलखिलाते बच्चे हों, भोजन हो, गाय बछड़े हों प्रीति रस से भरे पूरे हो सब जन। तभी कोई भवन घर बनता है। आधुनिक समाज के घर सीमेन्ट, लोहा और मौरंग गिट्टी के कारण मजबूत हैं लेकिन आंगन मंे आत्मीयता की दीप गंध नहीं। पारिवारिक सदस्यों में शीलगंध नहीं। सब अपने भविष्य को लेकर तनाव में हैं। बच्चों में ही अपना भविष्य देखने की दृष्टि नहीं। सो मजबूत घर भी दरक चिटक गये हैं।

बेघर मजदूर, गरीब किसान अपना घर किसी प्रकार बचाए हुए हंै। ईंट गारे की गड़बड़ी से भले ही ऐसे घर कमजोर हों लेकिन ‘घर घटक’ ध्रुव है। जिस भारत में घर-परिवार की प्रीति रीति का जन्म और विकास हुआ आश्चर्य है कि उसी भारत में घर टूट रहे हैं, घर बिखर रहे हैं। घर छूट रहे हैं। दो फाड़ हो रहे हैं। प्राचीन वैदिक समाज के देवता भी घर वाले गाएं गये थे लेकिन आधुनिक समाज के संचालक और परदेशी सभ्यता के प्रचारक किराए के घरों में हैं। किराए की कोख का विज्ञान लाए हैं। सुना है कि लिव इन के लिए घरों की दरें काफी सस्ती हैं।

विश्राम का मूल और सुख धाम है ‘घर’ Reviewed by on . घर आश्वस्ति है। विश्राम का मूल और सुखधाम। मनुष्य श्रम करता है, पीड़ित व्यथित होता है, थकता है टूटता है। अपमान भी सहता है। घर लौटता है। घर ही आश्रय है। आधुनिक सम घर आश्वस्ति है। विश्राम का मूल और सुखधाम। मनुष्य श्रम करता है, पीड़ित व्यथित होता है, थकता है टूटता है। अपमान भी सहता है। घर लौटता है। घर ही आश्रय है। आधुनिक सम Rating: 0
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