“कोई हो गया है मेरा मेरी कल्पना से पहले,
मेरा देवता मगन है मेरी वंदना से पहले।
कहीं शीश क्या झुकाऊं कहीं हाथ क्या पसारूं,
मुझे भीख मिल गई है मेरी याचना से पहले।”
भावनात्मक रूप से प्रभावित करने वाली संयोगवादी गजल की इन पंक्तियों की गूंज के साथ साहित्य के उस पुरोधा का अक्श जेहन में उभर जाता है, जिन्होंने मंचों पर हिंदी गजल के राजकुमार के रूप में अपनी अलग छवि बनाई। इसी छवि को वे आजीवन ढोते भी रहे। हालांकि उन्होंने ज्यादा नहीं लिखा, लेकिन जितना भी लिखा, उसमें प्रेम और पीड़ा के साथ-साथ जीवन की सच्चाई की झलक दिखती है।
यह साहित्यशिल्पी कोई और नहीं, अपितु विकल साकेती ही थे, जिन के रूप में 85 वर्ष की अवस्था में 6 जून, 2016 को साहित्याकाश का एक दैदीप्यमान नक्षत्र अनंत में विलीन हो गया।
विकल साकेती की साहित्यिक यात्रा हिंदी गजल के शहंशाह दुष्यंत कुमार से पहले शुरू हो गई थी, लेकिन राजनैतिक, सामाजिक व पारिवारिक झंझावातों ने हमेशा उन्हें उलझाए रखा। बाद में अभिव्यक्ति की शक्ति और रचनात्मक क्षमता ने उन्हें हिंदी गजल के राजकुमार के रूप में स्थापित किया।
गांव की गलियों से लेकर भारत के प्रत्येक बड़े शहर तक उनकी कविताएं गूंजीं। यही नहीं, सरहद पार दुबई, शारजाह और नेपाल में भी खूब वाहवाही मिली। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनके कहने का अंदाज अद्भुत और अद्वितीय था। अपनी रचनाओं के माध्यम से वह सीधे श्रोताओं के दिल को छू लेते थे।
देश जब अंग्रेजों की गुलामी के गहन गहवर से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था, तब 26 जनवरी, 1931 को तत्कालीन फैजाबाद और अब अंबेडकरनगर जिले के अकबरपुर तहसील के शुकुल पट्टी (पहितीपुर) गांव में साधारण देशभक्त ब्राम्हण परिवार में भगवती प्रसाद शुक्ला और सुबरन देवी के पुत्र के रूप में उनका जन्म हुआ था। समाज सेवा और राजनीति की सीख बचपन में परिवार से ही मिली थी। जिसे उन्होंने हमेशा अपनी जिंदगी से जोड़े रखा।
कवि होने के साथ साथ बेहतरीन शिक्षक और कुशल राजनीतिज्ञ की भूमिका पर भी सदैव खरे ही रहे हैं। इतना अवश्य था कि कांग्रेसी विचारधारा के होते हुए भी वह कुछ मामलों में अंग्रेजों के समर्थक थे।
यद्यपि बचपन में उनकी कविताएं सुनने का अवसर मुझे कई बार मिला, परंतु अब से डेढ़ दशक पूर्व एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के लिए जब उनका इंटरव्यू लेने उनके घर पहुंचा तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए थे। उनमें से एक यह भी कि पूर्वाचल में हिंदी गजल की शुरुआत का श्रेय इन्हें ही जाता है।
उन्हें हर प्रकार का स्वादिष्ट भोजन प्रिय था। वह मिथ्याभाषी बिल्कुल नहीं थे। सामने वाले को उनकी बात बेशक कड़वी लगे, पर वे सत्य से समझौता कभी नहीं करते थे। बलिष्ठ शरीर पर लंबी कोट, सफेद पाजामा और सिर पर टोपी से उनकी पहचान होती थी।
कानपुर के प्रख्यात कवि बलबीर सिंह ‘रंग’ इनके साहित्यिक गुरु थे। उनसे सीख लेकर कदम दर कदम आगे बढ़ते रहे विकल साकेती की साहित्यिक क्षमता को निखारने में शब्दर्षि सत्यनारायण द्विवेदी श्रीश की महती भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
देश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा 50 से अधिक बार सम्मानित विकल साकेती को काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी की ओर से साहित्य गौरव सम्मान देकर विभूषित किया गया था।
विकल साकेती का असली नाम जियाराम शुक्ला था, मगर उन्हें उनके असली नाम से कम लोग जानते थे। अकबरपुर के जिस बी.एन. इंटर कॉलेज में समाजवाद के जनक डॉ. राम मनोहर लोहिया ने सातवीं तक की शिक्षा प्राप्त की थी, उसी कॉलेज में दसवीं तक विकल साकेती ने भी पढ़ाई की। आगे चलकर 1952 में वह इसी इंटर कॉलेज में शिक्षक भी हो गए।
बकौल विकल साकेती, “मेरे अंदर छात्र जीवन में ही एक रचनाकार अंकुरित हुआ था, जो शिक्षक होने के बाद मूर्त रूप में सामने आया।”
पढ़ाई के दौरान अंत्याक्षरी प्रतियोगिता में कभी न हारने वाले विकल साकेती को कवि भूषण के साथ-साथ हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला के तमाम छंद कंठस्थ थे। बाद में मुख्यमंत्री हुए श्रीपति मिश्र द्वारा सुल्तानपुर में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन व मुशायरा इनके साहित्यिक जीवन का प्रथम सोपान साबित हुआ। यहीं के बाद से इन्हें दूर-दूर तक बुलाया जाने लगा।
इनकी लोकप्रियता में जगदीश पीयूष का भी अहम योगदान रहा। इन्हीं के संयोजन में अमेठी से पेरुम्बुदूर तक निकली यात्रा में विकल साकेती भी शामिल रहे। चूंकि इनका परिवार पक्का कांग्रेसी था, इसलिए गैर कांग्रेसी दलों के बारे में सोचना भी पसंद नहीं था।
इसी बीच इनके जीवन में विकट परिस्थिति उस समय खड़ी हुई जब फरु खाबाद से सांसद चुने जाने के बाद अपनी जन्मभूमि अकबरपुर आए डॉ. राम मनोहर लोहिया ने उनके काव्य पाठ से प्रभावित होकर अपनी पार्टी का सदस्य बना लिया, लेकिन घर पहुंचने पर पिता की फटकार का भी सामना करना पड़ा। इस दिन विकल साकेती बहुत दुखी हुए थे।
सन् 1969 में कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए। इनके पिता भगवती प्रसाद शुक्ल 1977 में जनता पार्टी की आंधी में हार गए थे। इसके एक वर्ष बाद भिनगा बहराइच में आई भयंकर बाढ़ से तबाह हुए क्षेत्र का सर्वे करने आईं ‘आयरन लेडी’ इंदिरा गांधी को जब नाव से राप्ती नदी के पार उतारा गया, तब उन्होंने ‘उतरी हुई नदी का करे कोई अनादर, सम्मान करने वाले सम्मान कर रहे हैं’ एक लंबी गजल लिखी जो कांग्रेसी गलियारों में बहुत लोकप्रिय रही।
वैसे सियासत इन्हें विरासत में मिली थी, लेकिन इस गजल की लोकप्रियता ने उनकी सियासी सफलता की पटकथा लिखी।
सन् 1979 में अमेठी में राजा रणंजय सिंह के अभिनंदन समारोह में आई इंदिरा गांधी उनकी वह पूरी गजल सुनकर भाव-विभोर हो गई और 1980 के विधानसभा चुनाव में टिकट दे डाला। किस्मत ने साथ दिया और विकल साकेती कटेहरी से विधायक चुन लिए गए। इसके बाद भी उनकी साहित्यक यात्रा अनवरत जारी रही।
राजनीति यदि उनका शरीर था तो साहित्य उनकी आत्मा। सन् 1986 में जीवनसंगिनी मूर्ति देवी के शारीरिक रूप से बिछुड़ने के बाद वह लगभग टूट गए थे और अकबरपुर के विशेश्वर आश्रम में एकाकी जीवन बिताने लगे थे।
विकल साकेती ने हिंदी गजलों के अलावा गीत, वंदनवार और मर्मस्पर्शी तमाम मुक्तक भी लिखे हैं। पहले तो उन्होंने रचना संकलन और पुस्तक प्रकाशन पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया परंतु वरिष्ठ कवि डॉ. कोमल शास्त्री के बार-बार प्रेरित करने के बाद उनका झुकाव पुस्तक प्रकाशन की तरफ हुआ।
वर्ष 2015 के अंत में अनुज प्रकाशन प्रतापगढ़ से उनकी पहली पुस्तक ‘कल्पना से पहले’ लोगों के हाथों में आई। यह वह दौर था, जब वह जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके थे।
उन्हें यदि हिंदी गजल का राजकुमार कहा गया तो कोई अतिशयोक्ति भी नहीं था। ऐसा इसलिए भी क्योंकि सीधी और सरल भाषा में कही गई गजल के प्रत्येक शेर से वे नौजवान ही नहीं उम्रदराज लोगों को भी प्रभावित कर लेते थे।
आसानी से याद हो जाने वाले दिलकश शेर वे बिल्कुल अलग अंदाज में मंच से पढ़ते भी थे। उनकी गजल के शेर में श्रोताओं को अपनी जिंदगी से जुड़े मसायल नजर आते थे। यथा -‘आज आए हैं जब यह बहारों के दिन हम तरसने लगे हैं एक सुमन के लिए, जो किनारे रहे वारुणी पा गए हमको विष मिल गया आचमन के लिए।’
एक अन्य गजल के शेर में विकल साकेती कहते हैं- ‘सुमुखी ने अगर मुख पखारा न होता, कभी सिंधु का नीर खारा न होता।’
जिंदगी से जुड़ी सच्चाई को निरखने का उनका एक अंदाज यह भी है- ‘अरमान सिकंदर के कभी पूरे नहीं हुए, सब कुछ समझ के हाथ मले जा रहे हैं हम।’
समर्पण और निठुरता को उन्होंने यूं देखा है- ‘चकोरों ने चुना जिसके लिए अंगार जीवन भर, निठुर वह चांद धरती पर न उतरा है ना उतरेगा’ और थोड़े से धन बल पर इतराने वालों की हकीकत उन्होंने इस तरह बयां की है- ‘कल जो बिजली गिराते रहे व्योम से, आज धरती पर उतरे तो जल हो गए।’
कुल मिलाकर विकल साकेती के चिंतन का कैनवास बहुत व्यापक था। वे सिर्फ प्रेम पर रीझने वाले श्रृंगारिक कवि ही नहीं थे, बल्कि लोगों के दुख-दर्द से जुड़ी सामाजिक पीड़ा को बखूबी समझने वाले रचनाकार भी थे।
नि:संदेह कहा जा सकता है कि विकल साकेती किसी एक व्यक्ति का नहीं, अपितु विचारों के एक प्रकाश पुंज का दूसरा नाम है। वह शारीरिक रूप से हमारे बीच बेशक नहीं हैं, परंतु यश काया में सदा जीवित रहेंगे। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक घनश्याम स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)