धार्मिक स्थलों पर हादसे हमारी व्यवस्था पर सवाल खड़ा करते हैं। धार्मिक आयोजनों में बेगुनाहों की मौत अपने आप में एक बड़ा सवाल है। मक्का के शहर मीना में हुआ हादसा कोई नया नहीं है। धार्मिक स्थलों पर उमड़ी भीड़ के साथ इस तरह के हादसे दुनिया भर में होते हैं, लेकिन कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं हो सकी है, जिससे बेगुनाहों की मौत होती है।
धार्मिक स्थलों पर हादसे हमारी व्यवस्था पर सवाल खड़ा करते हैं। धार्मिक आयोजनों में बेगुनाहों की मौत अपने आप में एक बड़ा सवाल है। मक्का के शहर मीना में हुआ हादसा कोई नया नहीं है। धार्मिक स्थलों पर उमड़ी भीड़ के साथ इस तरह के हादसे दुनिया भर में होते हैं, लेकिन कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं हो सकी है, जिससे बेगुनाहों की मौत होती है।
पवित्र शहर मक्का मंे यह हादसा उस दौरान हुआ जब दुनिया भर से हजयात्रा पर गए लोग शैतान को पत्थर मारने की रस्म अदा कर रह रहे थे। यात्रा का अंतिम दिन होने के कारण लोगों में पत्थर मारने की होड़ लगी थी, जिसके चलते यह हादसा हुआ। धार्मिक आस्था और विश्वास कभी-कभी हमारी व्यवस्था पर हावी पड़ता है।
मक्का में यही हुआ। जहां शैतान को पत्थर मारने की हज यात्रियों में मची होड़ के कारण दुनिया भर से गए 717 लोगों की भगदड़ में मौत हो गई, इसके अलावा 800 से अधिक लोग घायल हो गए। यह कोई नयी घटना नहीं थी। इसके पहले भी वहां शैतान को पत्थर मारने की होड़ में कई लोगों की मौत हो चुकी है। धार्मिक उत्सवों में इस तरह के हादसे दुनिया भर में आयोजित होते हैं, लेकिन हादसों के बाद भी इस पर बचाव के इंतजाम नहीं सोचे जाते हैं, जिससे धार्मिक आस्था व्यवस्था पर भारी पड़ जाती है।
व्यवस्था पर जहां धार्मिक आस्था भारी पड़ती है, वहीं इस तरह के हादसे होते हैं। हम धार्मिक मान्यताओं और रीतियों पर विवेक से सोचने की छमता खो देते हैं। उस वक्त हमारे लिए सबसे विषम परिस्थिति होती है। अगर पवित्र मीना शहर में शैतान को पत्थर मारने वाले हाजी अपनी बारी का इंतजार करते या थोड़ी-थोड़ी संख्या में हाजियों को शैतान को पत्थर मारने के लिए भेजा जाता तो संभवत: यह हादसा नहीं होता।
निश्चित तौर पर दुनिया के सारे मुल्कों की सरकारें धर्म के सवाल पर उदार बन जाती हैं। व्यवस्था का पालन कड़ाई से नहीं हो पाता है, जिससे इस तरह के हादसे दुनिया भर में होते हैं। हजयात्रा का आखिरी दिन होने से वहां 20 लाख से अधिक हाजी पहुंचे थे। पवित्र यात्रा का अंतिम दिन होने से भीड़ अधिक हो गई और शैतान को पत्थर मारने की लोगों में होड़ मच गई, जिससे ऐसा हुआ।
यह मक्का में दूसरा बड़ा हादसा था। 18 सितंबर को अल-हरम मस्जिद में क्रेन गिरने से 100 बेगुनाह हजयात्रियों की मौत हुई थी। भारत के भी कई हाजियों की मौत हुई है और लोग घायल हुए हैं। इस तरह के हादसे वहां कई बार हो चुके हैं। लेकिन सउदी सरकार ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया।
अगर मीना में पत्थर रस्म अदायगी के दौरान भीड़ को नियंत्रित करने के लिए व्यवस्था की गई होती हो इस तरह का हादसा नहीं होता। एक के बाद एक हादसों के बाद भी सबक नहीं लिया गया। मक्का में 1990 में भगदड़ मचने के दौरान 1426 लोगों की मौत हुई थी, जबकि 1994 में पत्थर मारने की रश्म अदायगी में 270 लोगों की मौत हुई हो चुकी है। 1987 में ईरानी हाजियों और सउदी सरकार के बीच झड़प में 400 से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी, जबकि 650 से अधिक लोग घायल हुए।
इसके अलावा 1997 में आग लगने से 340 से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा और 1500 लोग घायल हुए। इससे यह साबित होता है कि मक्का और मीना शहर में 25 से 30 सालों कई बार हादसों के बाद भी इससे बचाव के कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं किए गए जिससे हादसे दर हादसे होते रहे। धार्मिक उत्सवों में बेगुनाहों की मौत पूरी दुनिया के लिए चुनौती है। 1980 से 2007 तक दुनिया में भगदड़ की 215 घटनाएं हुईं। 7,000 से अधिक लोगों की मौत हुई उससे दुगुने लोग जख्मी हुए।
वर्ष 2005 में बगदाद एक धार्मिक जुलूस के के दौरान तकरीबन 700 लोग मारे गए। जबकि 2006 में मीना घाटी में हज के दौरान लगभग 400 लोगों की मौत हुई। लेकिन विदेशों में चिकित्सा और व दूसरी सुविधाएं त्वरितगति से उपलब्ध कराए जाने से अधिक से अधिक लोगों की जान बचाई जाती है, जबकि विकासशील देशों बेहतर मैनेजमेंट उपलब्ध न होने से मरने वालों की तादात अधिक होती हैं।
भीड़ को नियंत्रित करने का दुनिया के पास पास कोई सुव्यवस्थित तंत्र नहीं है। देश दुनिया में जाए दिन इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं, जिससे दर्जनों बेगुनाहों की जान चली जाती है। सरकार की ओर से लोगों को मुआवजा देकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर ली जाती है। लेकिन सरकार या व्यवस्था से जुड़े लोगों का ध्यान फिर इस ओर से हट जाता है। यहीं लापरवाही हमें दोबारा दूसरे हादसों के लिए जिम्मेदार बनाती है।
अखिरकार सवाल उठता है कि धार्मिक उत्सवों और आयोजनों में ही क्यों भगदड़ मचती है। क्यों निर्दोष लोग मारे जाते हैं। इस तहर के हादसे कई परिवारों को ऐसे मोड़ ला खड़ा करते हैं जहां से वे पुन: अपनी दुनिया में नहीं लौट पाते हैं।
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, देश में 79 फीसदी हादसे धार्मिक अयोजनों मंे मची भगदड़ और अफवाहों से होते हैं। 15 राज्यों में पांच दशकों में 34 घटनाएं हुई हैं, जिनमें हजारों लोगों को जान गवांनी पड़ी है। दूसरे नंबर पर जहां अधिक भीड़ जुटती हैं वहां 18 फीसदी घटनाएं भगदड़ से हुई हैं। तीसरे पायदान पर राजनैतिक आयोन हैं जहां भगदड़ और अव्वस्था से तीन फीसदी लोगों की जान जाती है।
नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार, देश 2000 से 2012 तक भगदड़ में 1823 लोगों को जान गवांनी पड़ी है। वर्ष 2013 में तीर्थराज प्रयाग में आयोजित महाकुंभ के दौरान इलाहाबाद स्टेशन पर मची भगदड़ के दौरान 36 लोगों अपनी जान गवांनी पड़ी। जबकि 1954 में इसी आयोजन में 800 लोगों की मौत हुई थी। उस दौरान कुंभ में 50 लाख लोगों की भीड़ आई थी।
वर्ष 2005 से लेकर 2011 तक धार्मिक स्थल पर अफवाहों से मची भगदड़ में 300 लोग मारे जा चुके हैं। राजस्थान के चामुंडा देवी, हिमांचल के नैना देवी, केरल के सबरीमाला और महाराष्ट्र के मंडहर देवी मंदिर में इस तरह की घटनाएं हुई हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है जब अस्पताल प्रबंध भी हाथ खड़े कर देता है। उसके पास इमरजेंसी चिकित्सा का अकाल हो जाता है, जिससे चाहते हुए भी लोगों की जान नहीं बचाई जा सकती।
इस तरह के हादसों के बाद लाशों पर सियासत शुरू हो जाती है। सत्ता और प्रतिपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप का दौर प्रारंभ हो जाता है। विपक्ष सत्ता पक्ष को घेरता है। हादसे में अपने प्राण गवा चुके लोगों के यहां पहुंच कर उनकी संवेदना से खेला जाता है। मीडिया को भी ऐसे हादसों से ब्रकिंग न्यूज मिल जाती है। दो-चार दिन के चिल्ल-पों के बाद सब कुछ शांत हो जाता है।
फिर इंतजार होता है एक और हादसे का, लेकिन घटना के पहले न तो हमारी संवेदनशील मीडिया और न ही स्वयंसेवी संगठन, और राजनैतिक दल आयोजन से पहले व्यवस्था का जायजा लेकर संबंधित खामियां सामने लाते हैं। बस केवल सरकार को घेर कर अपने दायित्वों की इतिश्री कर ली जाती है।
भारत और दुनिया के गैर मुल्कों में धर्म और आस्था को लेकर लोगों का अटूट विश्वास है। धार्मिक भीरुता भी हादसों का करण बनती हैं। हमारे पर अधिक हावी होने से हम एक भूखे, नंगे और मजबूर का सहायता के बजाय हम यहां दोनों हाथों से धार्मिक उत्सवों में दान करते हैं और अनीति, अधर्म और अनैतिकता का कार्य करते हुए भी हम भगवान औद देवताओं से यह अपेक्षा रखते हैं कि हमारे सारे पापों धो डालेंगे, जिसका नतीजा होता है कि हादसे बढ़ते हैं और बेमौत लोग मारे जाते हैं।
निश्चित तौर पर धर्म हमारी आस्था से जुड़ा है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम धर्म की अंध श्रद्धा में अपनी और परिवार की जिंदगी ही दांव लगा बैठें। इसका हमें पुरा खयाल करना होगा। तभी हम इस तरह के हादसों पर रोक लगा सकते हैं। अगर दुनिया के लोग धार्मिक आयोजनों पर बेहतर प्रबंधन नीति नहीं बनाते हैं तो हादसों में बेगुनाह लोगों मरते रहेंगे और हम हाथ पर हाथ रख मौत का तांडव देखते रहेंगे।
दुनिया भर के देशों को हादसों से सबक लेते हुए इस पर ठोस नीति बनाने की जरूरत है। तभी धार्मिक हादसों की भेंट चढ़ती जिंदगी पर विराम लगाया जा सकता है। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)