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भारत में पत्रकारिता पर जगेंद्र की हत्या से उठते सवाल

June 19, 2015 7:20 pm by: Category: सम्पादकीय Comments Off on भारत में पत्रकारिता पर जगेंद्र की हत्या से उठते सवाल A+ / A-

images (3)जगेंद्र हत्याकांड ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। इन सवालों में एक सवाल खुद पत्रकारों के बीच तैर रहा है कि जगेंद्र को पत्रकार माना जाएगा या नहीं.? यह सही है कि हर ‘भड़ास’ निकालने वाला व्यक्ति पत्रकार नहीं हो सकता। इसी के साथ ही यह भी सवाल उठता है कि किसी बड़े अखबार का ठप्पा न लगा होने भर से क्या कोई पत्रकार नहीं हो सकता है..क्या जब तक डीएवीपी से मान्यता प्राप्त या सरकार से सूचीबद्ध या फिर आरएनआई से पंजीकृत पत्र से जुड़ा व्यक्ति न हो, तो वह पत्रकार नहीं हो सकता? ये सब एजेंसियां तो पत्रों का पंजीकरण करती हैं, न कि पत्रकारों को। क्या देश में पत्रकारों को पंजीकृत करने वाली कोई संस्था है? क्या बिना लिखे-पढ़े कोई पत्रकार नहीं कहला सकता (यह वाक्य इसलिए, क्योंकि मैंने तमाम ऐसे मान्यता प्राप्त लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार देखे हैं, जिन्होंने सालों या अपनी पूरी जिंदगी में कभी कोई लेख या खबर नहीं लिखी, लेकिन बड़े अफसरों व सरकारों के बीच वरिष्ठ पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित रहते हैं) ..?

सूचना विभाग से सत्यापित व्यक्ति ही क्यों पत्रकार समझा जाए? क्या सूचना विभाग से मान्यता प्राप्त व्यक्ति ही पत्रकार माना जाएगा..? क्या सूचना विभाग जिस व्यक्ति को पत्रकार घोषित करता है, तो फिर उसके वेतन, उसकी प्रोन्नति, सेवानिवृत्ति या नौकरी से निकाले जाने पर उसके हितों की रक्षा करता है या उसके देयों का भुगतान कराता है..? क्या सूचना विभाग यह सुनिश्चित करता है कि जिन व्यक्तियों को पत्रकार के रूप में में मान्यता प्रदान कर रहा है, उसके संस्थान में श्रम कानून लागू है..?

क्या सूचना विभाग ने मान्यता प्राप्त पत्रकारों को दी जाने वाली सुविधाओं की कोई नियमावली बनाई है? अगर सूचना विभाग में पंजीकृत पत्रकार ही असली पत्रकार हैं तो वे कौन लोग हैं जो बाकायदा समाचारपत्रों में लिखते हैं..वर्षो से बाकायदा लिखे जा रहे हैं..जो कलक्टरों-मंत्रियों और मुख्यमंत्री तक की प्रेस कान्फ्रें सों में पत्रकार के रूप में सूचना अधिकारियों द्वारा ढोए जाते हैं..अखबरों में उनके नाम भी छप रहे हैं.? ऐसे लाखों लोगों को सरकार क्या पत्रकार मानती है?

..अगर वे लोग पत्रकार हैं तो सरकार उन्हें क्या सुविधाएं देती है? सरकार ने ही तहसील स्तर के पत्रकारों और डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों को मान्यता देने की घोषणा वर्षों पूर्व की थी, उसका क्या हुआ? सरकारों का यह दोहरा मानदंड क्यों..? क्यों सरकार किसी प्रभावशाली या खास बिरादरी के पत्रकार के मरने पर बीस-बीस लाख रुपये दे देती है और अनेकों असली पत्रकारों की मौत पर एक फूटी कौड़ी भी नहीं देती है..? पत्रकारों के परिजनों को आर्थिक मदद करने की सरकार की नीति क्या है.?

एक जमाने में पत्रकारों के अपने संगठन हुआ करते थे जो पत्रकारों के हितों की लड़ाई मालिकों से और सरकार से लड़ा करते थे। लेकिन जब से राजधानियों में जमे पत्रकारों के स्तर में गिरावट आनी शुरू हुई और समाचारपत्रों के मालिक ही पत्रकार बनने के लिए तड़पने और तलुवे चाटने लगे और सरकार ने इन मालिकों को मान्यता देनी शुरू की तब से पत्रकार संगठनों की दीवारें भी दरकने लगीं।

पत्रकार संगठनों का इसलिए भी अंत हो गया कि इनके नेताओं ने राजनीतिज्ञों की तरह नेतागिरी करने के अलावा हाशिए पर डाल दिए गए पत्रकारों के लिए कुछ नहीं किया। सिर्फ कार्यक्रम आयोजित किए, मंत्रियों को फूल-मालाएं पहनाईं, विज्ञापन लेकर स्मारिकाएं निकालीं। कुछ खास लोगों के लिए भ्रमण कार्यक्रम बनाया, कुछ और भी आनंद लिए और बाकी लोग दर्शक दीर्घा में बैठकर अपने को ठगा सा महसूस करते ही रह गए। पत्रकार संगठनों की राजनीति नौकरशाही और सरकार के सामने चेहरा दिखाने तक ही सिमटकर रह गई।

लेकिन वक्त बदला है। अब पत्रकारिता कागज के पन्नों से बाहर निकल आई है। डिजिटल हो गई है। सोशल मीडिया ने लाखों पत्रकार पैदा कर दिए हैं। जो काम अखबार नहीं कर पा रहे थे, वह काम सोशल मीडिया तेजी से करने लगा। पांच सौ कापी के सरकुलेशन वाले पेपर का पत्रकार भले ही अफसरों के सामने सीना तान कर घूमता हो, लेकिन फेसबुक और पोर्टल ने खबरों और विचारों को करोड़ों लोगों तक पंहुचाने का काम शुरू कर दिया है।

यूपी सरकार तो अभी तक अपनी पोर्टल नीति नहीं बना पाई है, लेकिन जगेंद्र की शहादत ने एक तरह से सरकार को मुंह चिढ़ा दिया है, क्योंकि जिस जगेंद्र को शाहजंहापुर का एसपी-डीएम या मंत्री विधायक सम्मान नहीं दे पाए, उसकी चर्चा आज पूरे विश्व में हो रही है..जगेंद्र ने एक तरह से फेसबुक की पत्रकारिता को मान्यता दिला ही दी।..

..आखिर जागेंद्र ने ऐसा क्या लिख दिया था कि उसे नृशंसतापूर्वक मारने की मजबूरी आन पड़ी..और सरकार को कहना पड़ रहा है कि ‘बिना जांच किए कोई मंत्री नहीं हटाया जाएगा..’ अरे, जांच करने से किसने रोका है..कर लो जीभर जांच और जांच के बाद ही बताना कि जगेंद्र क्यों मारा गया .लेकिन यह तो बता दो मेरे सरकार कि जांच कितने दिन में पूरी होगी…?

लेकिन सावधान रहिएगा कि कहीं ऐसा न हो जाए कि जांच पूरी होने तक आपको अपने आस-पास कई और जगेंद्र मंडराते नजर आने लगे..? समस्याएं इतनी हैं कि इस देश में लाखों-करोड़ों पत्रकारों की जरूरत है-बड़े मीडिया संस्थानों में तो ये सब खप नहीं सकते, इसलिए इनको फेसबुक और व्हाट्सअप या अन्य सोशल साइट्स का सहारा लेना पड़ रहा है।

हमारे देश के बड़े समाचारपत्रों में बाहुबलियों के खिलाफ कुछ लिख पाना लगभग असंभव सा है। छोटे पत्र तो इनके रहमो-करम पर ही जीवित रहते हैं। इन बाहुबलियों के कई रंग और कई रूप भी होते हैं, जिन पर सबकी निगाह नहीं जा पाती है। लेकिन लोग अपनी राह निकाल ही लेते हैं।

बुराई को जनता के सामने लाने के लिए पहले थोड़ा पैसा खर्च कर लोग छोटे-मोटे बुलेटिन निकाला करते थे। इस नए युग में सोशल साइट्स एक नए हथियार के रूप में सामने आई हैं, जिनकी आपनी फालोइंग भी किसी मध्यम दर्जे के अखबार से ज्यादा होती है।

ये पोट्र्ल, व्हाट्सअप और फेसबुक ऐसे प्रभावशाली व बियांडरीच (पंहुच से बाहर) लोगों पर डंक मारने का अच्छा काम कर रही हैं। ‘जगेंद्र उन्हीं मच्छरों में से एक था जिसने राजनैतिक बाहुबली का खून चूसने का प्रयास किया था-मसल दिया गया।’

शाहजहांपुर के जगेंद्र सिंह की वीभत्स हत्या ने सबको इसलिए नहीं चौंका दिया कि उत्तर प्रदेश में हत्या की यह पहली घटना है, इस तरह की घटनाएं प्रदेश में आम हैं। असल में देखा जाए तो किसी पत्रकार की इस तरह से की गई हत्या की यह पहली घटना है, जिसमें सरकार के मंत्री राममूर्ति वर्मा पर आरोप लग रहा है कि मंत्री के निर्देश पर पुलिसवालों ने इस घटना को अंजाम दिया (हालांकि यह साबित करना मुश्किल है कि इस हत्याकांड में मंत्री का हाथ है)।

पुलिस के मुखिया का यह ‘कयास’ बड़ा विचित्र है कि जगेंद्र ने खुद को आग लगा ली और वह भी ढेर सारे पुलिसकर्मियों के सामने। इसे आत्महत्या कहा जाएगा, लेकिन आत्महत्या करने वाला जगेंद्र संभवत: पहला शख्स होगा जिसने मृत्युपूर्व बयान में मंत्री और पुलिस पर ही हत्या के आरोप लगा दिए।

आमतौर पर आत्महत्या की एक वजह होती है और आत्महत्या करने वाला व्यक्ति उस वजह को खुलकर बताता है। डीजीपी का यह कहना कि जागेंद्र ने आत्महत्या की हो सकती है, मजिस्ट्रेट के सामने उसके दिए बयान को झुठलाने के समान ही है।

आम तौर पत्रकारों पर गुंडे हमला करते हैं और पुलिस पर मूकदर्शक रहने और गुंडों के खिलाफ कार्रवाई न करने के आरोप लगते रहे हैं। यह पहला मौका है, जिसमें वर्दीधारी पुलिसकर्मियों ने घर में घुसकर गुंडों की तरह किरासिन डालकर जगेंद्र को जलाने की हिमाकत की।

सबसे बड़ी बात यह है कि इस घटना को लेकर पुलिस व मंत्री राममूर्ति वर्मा पर जो आरोप लग रहे हैं, उन पर कोई संदेह इसलिए नहीं कर सकता, क्योंकि मृत्युपूर्व बयान में उनका उल्लेख है। मृत्युपूर्व बयान को सर्वोच्च न्यायालय तक मान्यता देता है। काफी शोर-शराबे के बाद जब पांच पुलिसकर्मियों को निलंबित किया जाता है तो इससे भी घटना में उनकी संलिप्तता की ही पुष्टि होती है।

सवाल यह नहीं है कि अखिलेश यादव की सरकार के मंत्री राममूर्ति वर्मा को मंत्रिमंडल से बर्खास्त किया जाए या नहीं, क्योंकि यह तो मुख्यमंत्री और उनकी सरकार चलाने में मदद करने वाली चौकड़ी के ऊपर है कि वह इस घटना को कितनी गंभीरता से लेते हैं। अब अगर मुख्यमंत्री या उनके घर के बड़े-बूढ़े अपने मंत्री राममूर्ति द्वारा किए गए कृत्य से खुश हैं तो वह उनको मंत्रिमंडल से क्यों बर्खास्त करेंगे..?

इसे पत्रकार की हत्या न भी माना जाए, तो कम से कम एक व्यक्ति की पुलिसवालों द्वारा की गई नृशंस हत्या की घटना तो माना ही जा सकता है। इसे पत्रकार की हत्या न मानी जाए तो अभिव्यक्ति की आजादी के ऊपर तो हमला है ही। एक तरफ अखिलेश यादव सोशल मीडिया के जरिये जनता से सीधे जुड़ने की कवायद कर रहे हैं और दूसरी तरफ सोशल मीडिया में सक्रिय लोगों की उनकी ही सरकार के नुमाइंदे हत्या करा रहे हैं। यह कैसी विडंबना है।

जगेंद्र सिंह को भले ही पूर्ण पत्रकार सरकार न माने, भले ही उनकी पुलिस जगेंद्र को गुस्सैल करार दे, लेकिन किसी मंत्री के इशारे पर प्रदेश के एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या तो है ही।

चर्चा इस पर भी चल रही है कि जगेंद्र पर कई मुकदमे भी थे, तो क्या उनमें ऐसी धाराएं भी थीं, जिनमें पुलिस को घर में घुसकर जलाकर मार डालने का अधिकार मिल जाता है?

सपा महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव अपने मंत्री को क्लीन चिट दे देते हैं और कहते हैं कि एफआईआर दर्ज होने से कोई अपराधी नहीं हो जाता..बात सही है, तो क्या प्रदेश में वे लोग गिरफ्तार नहीं होते, जिन पर मुकदमे दर्ज किए जाते हैं..।

एसपी बोलते हैं कि जांच किए बिना तथ्यों का पता नहीं चल सकता। डीआईजी यह नहीं बता पाते कि जांच रिपोर्ट कब तक आएगी..? आएगी भी या नहीं..? मगर अफसरों के बयान यह साबित करने के लिए काफी हैं कि जिस केस में मृत्युपूर्व बयान उपलब्ध हो, उस केस तक को सुलझाना यूपी सरकार के वश की बात नहीं है, क्योंकि इस प्रदेश में समाजवाद को नया अर्थ दिए जाने का प्रयास चल रहा है।

यह घटना या अफसरों और सरकार का रवैया कोई न चीज नहीं है, बल्कि यह इस सरकार के डीएनए का प्रमाण है। युवा मुख्यमंत्री को चाहिए कि वह अपने मोबाइल की कॉलर ट्यून की तरह नए जोश का परिचय दें और एक नई इबारत लिखें.. इस सरकार के पांच वर्ष पूरे होने के बाद कभी उन्हें अपने दम पर भी सरकार चलाने का मौका मिल सकता है..तब यही जोश उनके काम आएगा..।

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